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प्रेम मेरी नजर मे……..

परिवर्तन की ओर.......
परिवर्तन की ओर.......
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प्रेम एक शब्द नहीं है जिसकी व्याख्या की जा सके…….. भावों की अभिव्यक्ति सरल काम नहीं है…… ये असंभव है…. हम जितना ही कुछ लिख दें तो भी बहुत कुछ शेष रह ही जाता है….. मेरा पूरी तरह से ये मानना है की इसको मापना व इसका वर्णन करना बेहद जटिल कार्य है…… इसे शब्दों मे कहने के लिए कई उपमाओं का सहारा लेना पड़ता है….. जैसे ….
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प्रेम सुगंध की तरह है …… हम बस इसको महसूस ही कर सकते हैं….. पर जब इसको शब्दों मे बांधने का प्रश्न आता है तो बात बहुत कुछ कहने के बाद भी कम ही रह जाती है….. जिस तरह जब कोई व्यक्ति किसी तीक्ष्ण सुगंधित पुष्प के पौंधे से पास से होकर गुजरता है……. ओर वो किसी क्रोध या किसी घृणा या किसी अन्य विचार से भरा है…… तो ये संभव है की वो उस पुष्प की सुंदरता को न देख सके पर वो न चाहते हुए भी उस पुष्प की सुगंध को अपनी सांस मे ले कर महसूस कर ही लेता है……
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उसी तरह प्रेम भी व्यक्ति के ऊपर नहीं प्रेम की मात्रा पर निर्भर करता है…. यदि ये मात्रा अल्प है तो ये किसी क्रोधी या घृणा से भरे व्यक्ति के सम्मुख जाते ही समाप्त हो जाएगा…..पर अगर इसकी मात्रा सामने वाले के क्रोध और घ्रणा से अधिक शक्तिशाली है तो ये उस व्यक्ति की घृणा ओर क्रोध को समाप्त कर देता है………. जिस तरह यदि एक ग्लास गुनगुने पानी को एक बाल्टी ठंडे पानी मे डाला जाए… तो वो गुनगुना पानी उस ठंडे पानी के साथ जाते ही ठंडा हो जाता है….
लेकिन जब एक ग्लास ठंडे पानी को गरम पानी से भरी बाल्टी मे डाला जाता है तो ठंडा पानी ही गरम पानी के साथ मिल कर गरम हो जाता है…….. ये प्रकृति का नियम है की अल्प आधिक्य मे जाकर अपना अस्तित्व खो देता है…… अगर प्रेम को फैलाना है तो इसको पहले अपने भीतर इतना शशक्त करना होगा की सामने वाले के भीतर की घृणा या क्रोध को समाप्त कर दे………
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यही प्रेम का स्वभाव है …… गौतम बुद्ध के भीतर का असीमित प्रेम ही था जिसने अंगुलीमाल जैसे खूंखार डाँकू को भी उनकी बात शांति से सुनने को विवश किया ओर उसको शांत बना दिया…….
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प्रेम का एक रूप प्रकाश की तरह भी है…… और मानव का ह्रदय दर्पण की तरह……….. जिस तरह प्रकाश जब दर्पण पर पड़ता है तो वो परवर्तित होकर प्रकाश देता है…. उसी तरह प्रेम भी जब एक मानव ह्रदय से दूसरे मानव ह्रदय पर पड़ता है तो वो परवर्तित होकर प्रेम ही देता है……… पर शर्त यहाँ भी वही है…….. की प्रेम की मात्रा इतनी हो की वो परावर्तित हो सके …. जिस तरह दर्पण मे दीपक का प्रकाश जो की बहुत कम होता है वो केवल अपनी छवि ही बना पता है परवर्तित होकर प्रकाश नहीं दे पाता……..उसी तरह प्रेम भरपूर न होने पर भले ही वो परवर्तित होकर वापस न आए पर सामने वाले के ह्रदय मे अपना स्थान बना लेता है……..
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शब्द अक्सर प्रेम को झूठा बना देते हैं………. शब्दों मे पड़ते ही प्रेम अपने मूल असर से हट जाता है…….फिर शुरू हो जाता है शब्द जाल….. एक छोटा सा बच्चा चाहे वो किसी भी रंग का हो किसी भी सूरत का हो पर वो सामने वाले के ह्रदय को प्रेम से भर देता है… तब इसका ये अर्थ नहीं की जो भी बच्चे को प्रेम कर रहा है वो खुद प्रेमी स्वभाव का है …….. अपितु इसका सीधा अर्थ ये है की उस बच्चे के भीतर का अपर प्रेम सारे वातावरण को प्रेम से भर दे रहा है……… ये प्रेम सुगंध की तरह सामने वाले के भीतर के मनोभाव की परवाह किए बिना उनको इस सुगंध को ह्रदय मे उतारने के लिए विवश कर देता है……….. ये प्रेम उस प्रकाश की तरह सामने वाले के हृदय मे उतर कर परवर्तित होने लगा है………
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कभी आप गौर करके देखें जब एक घर मे कोई संतान जन्म लेती है तो कैसे उस घर का माहौल बदलने लगता है……. एक नयी प्रेम की ऊर्जा उस घर मे दौड़ने लगती है…. सारा वातावरण प्रेममय होने लगता है……. रोज रोज होने वाले छोटे छोटे झगड़े भी समाप्त हो जाते है………. किसी घर मे जब लड़की जन्म लेती है और वो छोटी मानसिकता से ग्रसित लोग जो इसको बोझ मानकर दुखी है……. वो स्वयं इस बच्ची के पास जाने से बचते है….. क्योकि वो के भीतर का प्रेम उनके ह्रदय को परिवर्तित करने मे सक्षम है……….
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एक बच्चा ही प्रेम से पूरी तरह भरा होता है……… क्योकि वो उसके माता पिता के प्रेम का ही प्रतिफल है……. जब तक वो दुनिया के बनाए झुठे समाज के जाल से दूर रहता है….. वो प्रेम से लोगों को भरने का काम करता है……… और जब धीरे धीरे वो दुनिया के स्वार्थ को समझता है तो उसके भीतर का प्रेम भी समाप्त होने लगता है….. और वो भी शब्दों को प्रेम का साधन बना लेता है…..
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जिस प्रेम मे त्याग की भावना नहीं है वह प्रेम निष्प्राण है ….. वह प्रेम है ही नहीं अपितु वह प्रेम के नाम पर किया जाने वाला एक छल ही है……. जब कोई व्यक्ति निश्चल, पवित्र और असीम त्याग की भावना के साथ प्रेम से भर जाता है तो वो मनुष्य से इंसान बन जाता है….. यूं तो जन्म से हम सभी मनुष्य है पर इंसान कोई कोई ही बन पाता है……. सच्चा प्रेम वही होता है जिसमे व्यक्ति आत्मबलिदान करने को भी तत्पर रहे……
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