5 सितम्बर, शिक्षकों के सम्मान का दिवस……. पूर्व राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के सम्मान में मनाया जाने वाला दिन….. इस दिन शिक्षकों को पूरा राष्ट्र नमन करता है………… इस दिन सभी शिक्षकों को आत्म मंथन करना चाहिए की क्या वे अपने कर्त्तव्य प्रति समर्पित हैं …….. क्या वे सही से अपनी भूमिका निभा रहे है………..
वास्तव में इस शिक्षकों की भूमिका कुम्हार की तरह है…….. अगर गीली मिटटी को थोडा गलत तरह से छु लिया तो उसका पूरा व्यक्तित्व बदल जाये……….
इस घटना को मैंने बड़े करीब से महसूस किया है…………. बात उन दिनों की है जब मैं दूसरी या तीसरी में था……. मेरी लेख बड़ी सुन्दर थी …….. इस पर मेरी टीचर ने सबके सामने खड़ा कर कहा की बहुत सुन्दर लेख है इस लडके का…. तुम सब भी कोशिश करो तो तुम भी सुन्दर लिख सकते हो……… मेरा हौसला बढ़ गया …… मैं और सुन्दर लिखने का प्रयास करता और ये ही कोशिश करता की जो सम्मान मुझे सबके सामने खड़ा करके दिया गया वो कभी कम न हो………….फिर कुछ महीनो बाद हमारी नयी टीचर आई……. मैं अपनी कक्षा के अन्य बच्चो की तुलना दिखने में साधारण ही था, और शांत ही रहता था……. बाकि बच्चे काफी अच्छे थे… तो हमारी अध्यापिका एक अन्य बच्चे को जो की होशियार था…….. सुन्दर लेख वाला था… को अच्छा मानती थी…… वो लड़का मुझे पसंद नहीं करता था……. और आज भी नहीं करता……तो अध्यापिका हर रोज किसी न किसी बहाने से उसकी खूब प्रसंसा करती…. एक बार हमारा मासिक टेस्ट लिया गया……….. मैंने सारे सवाल किये…….. किन्तु एक मुझे साढ़े नौ नम्बर दिए गए और दस केवल मेरे उस मित्र को मिले……… तब मैं आज की तुलना में ज्यादा जागरूक था……… तो मैं आगे गया और पूछ बैठा की आधा अंक क्यों कम दिया गया …. इस पर अध्यापिका महोदया भड़क गयीं… और बोली की अपनी लेख देखि है….. तुम्हारे शब्दों की बनावट मुझे बिलकुल पसंद नहीं……….. फिर मैंने उनसे कहा की अगर लेख के कारण अंक कटे है तो फिर ठीक है…….. मुझे लगा शयद कोई गलती पर कटे है…….अब लेख सुधारने के प्रति मेरा जोश ठंडा हो गया …… हर बार यूँ ही होने लगा की मैं साढ़े नौ पर और मित्र दस पर आता रहा……. फिर मेरा उत्साह कम होने लगा …….. और साढ़े नौ कब साढ़े छह बन गया पता नहीं चला………… एक अन्य अध्यापिका जिन के प्रति मेरे भीतर अनन्य सम्मान है वो मुझे अंग्रेजी पढ़ने आई …… मेरी इस भाषा की लेख बहुत बुरी थी…. पर उन्होंने मेरी हिंदी की लेख देख कर कहा की तुम एक भाषा में इतना सुन्दर तो दुसरे में इतना बुरा क्यों लिखते हो………. उन्होंने काफी मेहनत की मेरे लेख पर ………. और उस स्कूल को छोड़ने तक मेरी लेख सम्मान जनक स्तर पर आ चुकी थी………
अब नए स्कूल में गया तो वहां सभी पुरुष अध्यापक थे…….. वहा फिर मुझे प्रसंसा मिली…. मेरे सुन्दर लेख के कारण………. और सबने कहा की तुम पढाई में ध्यान दो तो कुछ अच्छा कर सकते हो………. यहीं से फिर पढाई की और दुबारा ध्यान गया और मैं औसत से ऊपर छात्रों में आ गया………….
पर यदि बचपन में मुझे अपने लुक की जगह अपने ज्ञान के कारण प्रोत्साहन मिलता तो शायद मैं आज जहाँ हूँ वहां से कही ऊपर होता……… और अगर मुझे अंग्रेजी की अध्यापिका जैसे प्रोत्साहित करने वाली अध्यापिका और सरकारी स्कूल के अध्यापकों का प्रोत्साहन न मिलता तो आज मैं और भी बुरी हालत में होता………………..
तो अगर आप ये लेख पढने वाले अध्यापक वर्ग से हैं तो ध्यान दें…………… आपकी बातें उस कच्चे घड़े पर निर्माण के समय जैसा असर डालेंगी वो जीवन भर वैसा ही रहेगा………… तो आपसे निवेदन है की ऐसा कुछ न करें की एक और पियूष को कभी ऐसे ही अपने लेख में अपना दर्द लोगों को शिक्षक दिवस के दिन बाँटना पड़े…………….
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