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बचपन ………. कितना मधुर था जीवन तब……….
हमारी एक चीख पर सभी घरवालों की साँसे रुक जाती थी………. न जाने क्या हुआ………. क्यों चीखा वो……….. पर अब हम बड़े हो गए………. अब हम खुद को सँभालने में सक्षम हो गए…………… आज जरा देखें क्या क्या बदला अब और तब में………………
तब एक चीख पर सब घर वाले सामने खड़े हो जाते थे………. और तब माँ आकर कहती थी, की बेटा गिर गया लगी तो नहीं………. थोडा आराम से चला कर…….. तो खुद को एक भरोसा सा होता था……… की अब सब ठीक है…………. और प्रेम से गले लग जाते थे अपनी माँ के…………
और आज जब वो ही माँ कहती है की बेटा बाइक आराम से चलाना कही लग न जाये ……… तो हम कहते है.. की बस तुम टोक दो अब तो नहीं भी लगने वाली होगी तो लग ही जाएगी…….. और जब अपनी गलती से चोट लगा कर आते हो तो घर आ कर कहते हो की सब तुम्हारे टोकने के कारण हुआ है…….
तब वो माँ ही थी जो हमारे टूटे फूटे अल्फाज़ समझ जाती थी जिनको कोई और समझ नहीं सकता था…….. और हमको लगता था की हम सब कुछ समझने की स्थिति में हैं……..
और आज हम उस से ही ये कहते है की नहीं माँ तुम नहीं समझ पाओगी…….. तुम कुछ नहीं जानती……
तब वो माँ ही थी जिसका स्पर्श ही अहसास करा देता था की वो हमसे क्या चाहती है…………. उसका स्पर्श ही हम समझ जाते थे……
और आज हम कहते हैं…… की आपकी बातें मुझे समझ नहीं आती हैं…………
वो माँ जो हमारी ख़ुशी के लिए न जाने अपनी कितनी खुशियाँ दबा गई……
उसकी कोई बात आज अगर जबरन माननी पड़ जाये जो की हैं हमारे भले की ही तो हम कहते है………. बस हो गया ……अब हो गयी खुश………
याद रखें जब भी कुछ कड़वा कहें अपनी माँ से एक बार उसकी आँखों में जरूर देखें …….. एक दर्द उमड़ पड़ेगा उन आँखों में…………….. ये जीवन एक निश्चित यात्रा है….. जो कभी भी पूरी हो सकती है……….. हो सकता है आप आज जो व्यवहार आज अपनी माँ के साथ कर रहे हैं कल चाह कर भी उसकी माफ़ी भी न मांग सकें…………….
सख्त रास्तों में भी आसान सफ़र लगता है………..
ये मुझे माँ की दुवाओं का असर लगता है…………
एक मुद्दत से मेरी माँ रात भर नहीं सोई……….
मैंने एक रात कहा था माँ मुझे डर लगता है………
ये पंक्तियाँ किस इंसान ने लिखी मुझे नहीं पता…………………
पर इस लेख के लिए इस से सुन्दर पंक्तियाँ मुझे कहीं नहीं मिली…………….
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शुभ कामनाओं के साथ………….
पियूष कुमार पन्त………………..
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