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ये एक छोटी सी कहानी है………… जो बताती है की कई बार हमारी परम्पराएँ ऐसी होती हैं की जिनको हम यूँ ही ढोते हैं…… जबकि उनकी उत्पत्ति अज्ञानता वश होती है……….और ये कैसे होती है शायद इस कहानी से स्पष्ट हो जाये……………….
किसी एक गाँव में एक सास और उसकी बहु रहते थे……… दोनों में सास बहु जैसा न होकर माँ बेटी जैसा स्नेह था……. सास ने एक बिल्ली पाली हुई थी……. जब भी सास चूल्हे में कुछ पकाने बैठती तो बिल्ली भी चूल्हे के पास आकर बैठ जाती……..
यहाँ पहाड़ों में ठण्ड के मौसम में पानी के जम जाने से पानी के पाइप तक फट जाते है………. तो फिर बिल्ली ऐसे सर्द मौसम में और क्या करती ……….. तो इस ठण्ड से बचने के लिए वो वहीँ बूढी सास के साथ आग के नजदीक बैठ कर अपने शरीर को गर्म कर लेती………… अब बिल्ली की तो आदत ही होती है की अभी नज़र हटी तो कभी किसी बर्तन में मुह डाल दे तो कभी किसी और में…….
जब से बहु घर में आई तो उसने देखा की हर साल रोज बिल्ली सास के साथ बैठी रहती है…… पर जब भी उसके ससुर का श्राद्ध होता है तो सास सुबह से बिल्ली को एक टोकरी के नीचे छिपा कर रख देती………. जब तक श्राद्ध पूरा न हो जाये……… और ब्राह्मन महाराज खाना खा कर चले न जाएँ…….. बिल्ली उस टोकरी के नीचे ही रहती ……….. उसको वहीँ खाना पीना मिल जाता……..
इस के पीछे मूल कारण ये था की……. श्राद्ध के दिन ब्राहमण को भोजन करना और भगवन का प्रसाद बनाना होता था….. और बिल्ली घर में हो तो ये खतरा रहता था की कहीं वो प्रसाद को जूठा न कर दे….. इस लिए सास बिल्ली को पहले ही एतिहत के तौर पर ढक देती थी………
अब धीरे धीरे सास बूढी होने लगी…..और बहु बड़ी होने लगी………. अब वो सास के साथ श्राद्ध में खाना बनाने में सहायता करने लगी………. अब वो बहु सुबह सुबह टोकरी लाती और बिल्ली को उसके नीचे छुपा देती……….. कुछ सालों बाद सास परलोक सिधार गयी……. और संयोग से उसी साल कुछ ही समय बाद वो बिल्ली भी मर गयी………
अब एक साल बाद जब सास का श्राद्ध आया तो बहु सुबह सुबह पड़ोस के घर गयी और बोली आज दिन भर के लिए अपनी बिल्ली मुझे दे दो………….. पड़ोसन ने पूछा… आज सुबह सुबह बिल्ली जो क्यों चाहिए……..
बहु बोली क्या करूँ काकी (चाची) कल शाम याद ही नहीं रही ले जाने की……. आज ईजा (माँ) का श्राद्ध है…….हर साल बौज्यू (पिताजी) के श्राद्ध में ईजा बिल्ली को टोकरी के नीचे ढक कर रखती थी….तब सामग्री बनती थीं……… अब बिल्ली तो बौज्यू के श्राद्ध के बाद मर गयी……. अब तो केवल टोकरी ही है……… तो मैं नहीं चाहती की ईजा के मरने के बाद ये परंपरा यूँ ही ख़त्म हो जाये………….
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ऐसा ही कई सम्प्रदायों में होता है……… वो जानते नहीं की वो जो कर रहे है वैसा क्यों कर रहे हैं……… उनके धर्म प्रवर्तकों ने वैसा किया तो उन्होंने उसको नियम ही मान लिया …….. बिना ये सोचे की आखिर इसका कारण क्या था ………… जिन परम्पराओं को समय के साथ ही समाप्त हो जाना था……….. वो ही इन सम्प्रदायों का अनिवार्य अंग हो गयी…………
बुद्ध ने जीवन पर्यंत मूर्ति पूजा का विरोध किया….. और बोद्धों ने बुद्ध को बुत बना दिया………… बुद्ध की अनगिनत प्रतिमाओं के कारण ही बुद्ध का अपभ्रंस बुत आया………….. इसी तरह अन्य कई संप्रदाय बस खोखली बातों को पकडे हैं और सारहीन बातों से कोसों दूर हैं…………….
एक सज्जन ने एक बार बताया था की जैन संप्रदाय में ये प्रथा है की सूरज ढलने के बाद भोजन नहीं लेते हैं…………. पर क्यों नहीं लेते इसका कारण कोई नहीं बता पाया……….. वास्तव में इसका कारण शायद ये है की ………क्योकि महावीर सूरज ढलने के बाद भोजन नहीं करते थे इसलिए वो भी नहीं करते……….. पर महावीर के सुर्यस्तोपरांत भोजन न लेने का कारन न्यायोचित था………. वो सूर्यास्त के उपरांत भोजन नहीं लेते थे क्योकि अँधेरा होने पर छोटे छोटे कीट भोजन के साथ मुह में जा सकते थे…….. उस काल में प्रकाश की कोई व्यवस्था नहीं थी……… यदि आग से प्रकाश किया जाये तो कीट और भी अधिक आग की और आकर्षित होते है….
पर ये प्रथा बदस्तूर जारी है………….. आज कई जैन लोग ऐसे कमरों में रह रहे हैं जहाँ दिन से भी अधिक प्रकाश रात को हो रहा हैं………. कीट पतंगों का प्रवेश जहाँ नहीं हो सकता है वहां भी जैन रात्रि भोजन को निषेद मानते हैं………….
इस लिए हर परंपरा को निभाने से पूर्व हमको सोचना चाहिए की क्या इस परम्परा के पीछे कोई वाजिब वजह है………….. या यूँ ही …………………….?
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