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समभाव मे शांति……….

परिवर्तन की ओर.......
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हिमांशु भट्ट जी द्वारा रचित ……………. कहाँ है शांति ………… पर प्रतिक्रिया देते हुए एक कहानी याद आ गयी………… कुछ अच्छी लगी इसलिए आपसभी के साथ बाटना चाहता हूँ…………


एक आदमी था……….. जिस तरह से कहानी चलती है उससे लगता है अवश्य ही कोई महान संत रहा होगा……… वो भगवान का अनन्य भक्त था…….. उसका सारा जीवन प्रभु भक्ति मे लगा रहा…………..

फिर जैसा की विधान है की जीवन के बाद मृत्यु है……. तो उस संत के जीवन के दिन भी समाप्त होने की ओर थे……. एक दिन एक देवदूत धरती पर उसको मिलने आया…… संत के लिये क्या राजा ओर क्या रंक……… सभी को समभाव से देखने के कारण ही लोग संत कहलाते है……. तो उस संत ने उसका ठीक उसी तरह सम्मान किया जैसे वो किसी साधारण व्यक्ति का करता………

अब देवदूत थोड़ा परेशान हो गया……… उसने कहा की मूर्ख मैं साधारण व्यक्ति नहीं …… देव दूत हूँ………….. मेरा सम्मान कर…… वो बोला मैंने कभी किसी का अपमान नहीं किया तो सम्मान का प्रश्न ही नहीं उठता…….

वो देवदूत बोला मेरे ओर साधारण आदमी मे फर्क न करना भी मेरा अपमान है……… मैं तुझे इसकी सजा दे सकता हूँ……….
तो वो संत बोला महाराज जब मैंने आपसे किसी वरदान की इच्छा नहीं की तो आप के श्राप से मुझे कैसा भय……..

अर्थात जब मेरे लिये वरदान ही मूल्यहीन है तो श्राप से मैं कैसे डर सकता हूँ……..

देव दूत बोला….. मैं तुझे नर्क मैं भेज दूंगा……. तो वो बोला मैंने आपने जीवन को नर्क ही बना रखा है……. मानव जीवन को क्या स्वर्ग का लोभ ओर क्या नर्क से भय……… अब देवदूत थोड़ा सा आशंकित हुआ…….

उसकी कुछ समझ मे नहीं आ रहा था की आखिर किस तरह से उसको डराया जाए………. उसने कहा की तू मोक्ष को प्राप्त हो सकता है…….. किन्तु मैं चाहुं तो तुझे मोक्ष से दूर कर दूँ……… फिर संत बोला की ना तो मुझे मोक्ष की लालसा है ओर न ही पुनर्जन्म से भय………..

अब संत देवदूत से बोला ………. प्रभु आप एक ओर कह रहे हैं की आप मुझसे नाराज है ओर मुझे इसका दंड देना चाहते हैं……. ओर दूसरी ओर आप मुझपर वरदानो के विकल्प लूटा रहे हैं………

अब देवदूत समझ चुका था……. की उस संत की मनोदशा का स्तर क्या है……. जिस व्यक्ति को स्वर्ग ओर नर्क मे कोई भेद न पड़े …… जिसे मृत्यु ओर जीवन से कोई फर्क न पड़े……. जो वरदान ओर श्राप से भी न डगे………..वो निश्चित ही महासंत है….. ओर वो उस संत के चरणो मे गिर पड़े ओर क्षमा मांगी………

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यही कुछ एक दार्शनिक (शायद लाओत्से ने) भी कहा था…… की कोई मेरा अपमान नही कर सकता क्योंकि मैं सम्मान की इच्छा ही नहीं रखता ……… कोई मुझे दुख नहीं दे सकता क्योंकि मैं किसी से सुख की कामना नहीं रखता………….

तो यही समभाव है…. जो जीवन दिशा ओर दशा को बदल सकता है । जब हम सम्मान की आशा छोड़ दें तो अपमान का कोई अनुभव ही न हो……… जब सुख की कोई चाहत ही न करें तो दुख का पता भी न चले…………

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