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बचपन मे पढ़ा ओर सुना था की विद्या एक ऐसा धन है जो की बाटने मे बढ़ता हैं………. पर समझ ही नहीं पाता था………….. की ऐसा कैसे है……. कैसे इसको बाटें ओर कैसे ये बढ़े…….. फिर दिन बड़े भाई ने पढ़ाते समय एक सवाल बिना पूरा पढे ही उसका पूरा उत्तर सही सही बता दिया………… मैं थोड़ा चौंका की ऐसे कैसे……….?
फिर भाई ने कहा की तुझे पढ़ाते पढ़ाते मुझको सब याद हो गया है…………. तब समझ की कैसे ये धन बढ़ता है……………..
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तब से केवल यही विचार था की विद्या एक ऐसा धन है जोकि बाटने से बढ़ता है………. फिर धीरे धीरे एक ओर धन से परिचय हुआ ………… जो विद्या की तरह ही बाटने से बढ़ता है…………. ओर वो धन था प्रेम………..
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प्रेम सुगंध के समान है……… जो फैलता है……. आप फूल के नजदीक से भी गुजर जाओ तो न चाहते हुए भी उसी सुगंध आपको आकर्षित करती है……….. उसी तरह प्रेम भी है……… आप यदि इस प्रेम से भरे हों तो न चाहते हुए भी लोग आपकी ओर आकर्षित होंगे…….. ओर आपके प्रति प्रेम उनके हृदय मे उत्पन्न हो जाएगा……… आपका प्रेम किसी पत्थर के हृदय मे भी आपके प्रति प्रेम जागा सकता है……….
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ये एक सामान्य सा प्रश्न है……. की क्या कभी पत्थर मे भी भगवान होते हैं……..? ये तो प्रतीक मात्र हैं…………. तो क्या प्रतीक से भी कभी उस तक पहुंचा जा सकता है………? जो किसी रूप का नहीं है फिर भी हर रूप उसी का है……… जिसका कोई वजूद नहीं है…… फिर भी हर वजूद मे बस वो ही है………… वास्तव मे ये हमारा उस अनंत परमात्मा के प्रति प्रेम ही है उसको पत्थर मे भी आने को मजबूर कर सकता है……….. प्रहलाद को खंभे से भगवान यूं ही नही मिलते……. वो उसका प्रभु के प्रति असीम प्रेम ही है जो उस परमात्मा को मजबूर कर देता है……..
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प्रेम के संदर्भ मे एक बहुत रोचक कथा सुनी……………
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एक बार एक संत किसी मंदिर के निकट अपनी कुटिया बना कर रहते थे…….. एक बार एक लोभी साहूकार संत से मिलने आया……… उसने संत से प्रार्थना की कि वो उसकी एक इच्छा पूरी करने का कोई उपाय बताए….. इसके बदले वो संत को 10 स्वर्ण मुद्राए देगा………… संत ने कहा कि वो उसकी हर भरसक सहायता करेगा…….. ओर फिर संत ने पूछा कि बता क्या इच्छा है तेरी……………..
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साहूकार बोला ……. महाराज कोई ऐसी तरकीब बताओ कि जिससे मेरी बीबी मर जाए…….. संत बोले हम यहाँ उस अनंत जीवन कि ओर लोगों को ले जाते हैं……. ओर तो हमसे किसी कि मौत का तरीका पूछ रहा है…….. पर हम इस काम मे तेरी कोई सहायता नहीं कर सकते……….
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साहूकार बोला कि महाराज सोच लें……… मैं इस काम के बदले आपको 20 स्वर्ण मुद्रा दूंगा……………. संत ने कहा कि ये मिट्टी का लोभ हमे न दे……… ये तो हम कब के छोड़ चुके………. अब साहूकार बोला 50 स्वर्ण मुद्रा दूंगा………. अब संत ने कहा ठीक है पर बता कि क्यों मारना चाहता है अपनी पत्नी को………. वो बोला कि वो हर बार अपने को सवारने मे मेरा धन व्यर्थ उड़ाती है………
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संत ने कहा………ठीक है सामने जो मंदिर है उसमे जाकर भगवान से कह कि यदि मेरी पत्नी स्वस्थ रहे दीर्घायु होजाए तो मैं 100 स्वर्ण मुद्राये चड़ाऊंगा……….. साहूकार बोला मैं अपनी पत्नी कि मौत इस लिए चाहता हूँ कि मेरा धन बचे…….. ओर तुम उसकि दीर्घायु के लिए मंदिर मे धन चड़ाने कि बात करते हो………
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संत ने कहा…….. मूर्ख मैंने चड़ाने के लिए नहीं केवल वादा करने को कहा है…….. जब तो धन नहीं चढ़ाएगा तो तेरी प्रार्थना उल्टी हो जाएगी ओर 3 माह के भीतर तेरी पत्नी मर जाएगी………… साहूकार को ये बात कुछ पसंद आ गयी….. ओर उसने मंदिर जा कर कहा कि अगर मेरी बीबी मर जाए तो मैं 1000 स्वर्ण मुद्राए चढ़ाऊगा…… संत ने कहा 1000 क्यों …… साहूकार बोला जब चढ़ानी नहीं है तो 1000 कहने मे क्या जाता है……..
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ओर साहूकार घर चला गया………. कुछ दिन बीते पर उसकी पत्नी पर कोई असर नहीं हुआ…….. वो ओर भी सेहतमंद नजर आने लगी…… तो साहूकार फिर संत के पास आया ओर बोला कि महाराज मेरी बीबी तो मरने के स्थान पर ओर भी स्वस्थ होने लगी है…….. तो संत ने कहा कि तूने धन नहीं चढ़ाया इसका पाप तुझे मिलना तय था…….. पर क्या तूने भगवान को इंसान समझा है ….. जो ये भी न समझ पाएँ कि तेरी पत्नी का मारना तेरे लिए शाप नहीं वरदान होगा……….
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अब साहूकार ने कहा कि अच्छा आप कोई उपाय बताएं………. तो संत ने कहा कि तू आज अपनी पत्नी के लिए सुंदर वस्त्र ले जा……. उसकी तारीफ कर उसको जी भर कर देख…….. उसको प्रेम कर………. जब तू उसको प्रेम करने लगेगा…… तो तब उसकी मृत्यु तेरे लिए शाप के सामान होगी……..और तब भगवान शाप के रूप मे उसको उठा लेंगे……………
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ये बात साहूकार कि समझ मे आ गयी……. ओर उसने ऐसा ही किया……….. वो सुंदर वस्त्र ओर आभूषण लेकर पत्नी के पास गया…….. यूं उसको पत्नी से कोई प्रेम नहीं था…… पर आज वो प्रेम का झूठा प्रदर्शन कर रहा था……. पत्नी भी उसको कोई प्रेम नहीं करती थी……… क्योकि वो जानती थी कि वो उसको नहीं केवल पैसे को प्रेम करता है…..
पर जब आज साहूकार सुंदर वस्त्र ओर आभूषण लाया ओर अपने प्रेम का प्रदर्शन करने लगा तो स्त्री ने भी अपने वर्षों के संचित प्रेम को पति पर लूटा दिया………… नए वस्त्रों मे अपनी खूबसूरत पत्नी को देख कर साहूकार बड़ा खुश हुआ……… ओर फिर जब उसकी पत्नी के भीतर दबा प्रेम बाहर आया तो वो भी प्रेम कि उस सुगंध से अछूता न रह सका …………….
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पत्नी के असीम प्रेम के कारण धीरे धीरे उसका भी अपनी पत्नी के प्रति प्रेम जागने लगा………… जैसे ही उसको ये एहसास हुआ वो दौड़ा………… ओर संत के पास गया ओर बोला कि महाराज अब मैं नहीं चाहता कि मेरी पत्नी को कुछ भी हो……….. मैं उसको वास्तव मे प्रेम करने लगा हूँ………… आप कोई राह दिखाईये……… संत ने कहा कि जितना धन चढ़ाने का वादा किया था वो चढ़ा दे…….वो बोला ठीक है……मैं तैयार हूँ………. ओर तब संत बोले बस हो गया अब उस धन कि आवश्यकता नहीं है……… तुझे जो राह दिखानी थी वो तुझको दिखा दी… अब तू इस पर चलता जा……..
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साहूकार बोला पर कहीं मेरी पत्नी को कुछ हो गया तो………… संत बोले वो भगवान सिर्फ देता ही है लेता कुछ भी नहीं है………… केवल अपनी पात्रता सिद्ध करनी होती है…….. अब तूने अपनी पत्नी के प्रति अपनी पात्रता सिद्ध कर दी है ………. अब तू जा……. कुछ नहीं होगा………………….
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ये साहूकार कि पत्नी का प्रेम ही था……… जिसे साहूकार के लोभ को समाप्त कर दिया…….
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