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प्रेम मेरी नजर मे …

परिवर्तन की ओर.......
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प्रेम वास्तव मे शर्तों से बंधनो से ओर शब्दों से परे का विषय है….. अक्सर प्रेम मे कई बातें कह दी जाती हैं पर वो झूठ ही निकलती है….ओर प्यार मौन मे ही फलीभूत हो जाता है…. प्रेम मे अक्सर शब्द झुठे हो जाते हैं….. प्रेम वाह्य उपाधि, पद, प्रतिष्ठा से नहीं अपितु भावों की अनुकूलता से होता है… शारीरिक प्रेम तभी तक जीवित रह पाता है जब तक की शरीर मे आकर्षण बना होता है…. किन्तु जब शरीर अपनी युवा अवस्था से आगे निकाल जाता है तो प्रेम समाप्त होने लगता हिय….
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वास्तव मे यही सत्य है….. किसी के रूप रंग से प्रेम क्षणिक होता है…………. क्योकि ये रूप रंग ही क्षणिक है………….. एक बच्चे को उसकी दादी नानी के पोपले गालों से कोई फर्क नहीं उसके भीतर प्रेम उनके द्वारा उसको मिलने वाले प्रेम का प्रतिफल है………
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अष्टावक्र ने जब राजा जनक की सभा मे प्रवेश किया तो सभी उसके अंग देख कर हसने लगे ……….. स्वयं राजा जनक भी ……… तभी अष्टावक्र भी ज़ोर से हसने लगे ……….. ओर जनक ने पूछा की इन लोगों के हसने का अर्थ मैं समझ सकता हूँ……… पर तुम क्यों इस तरह हस रहे हो……… तो अष्टावक्र ने उत्तर दिया ………… महाराज मैंने ये सोचा था की राजा जनक ने विद्वानो की सभा बुलाई है……….. किन्तु ये तो चमडी के व्यवसायियों की सभा है…… राजा जनक ने चौकते हुए कहा की बालक ये विद्वानो की सभा है……….. तो अष्टावक्र ने कहा की मेरी चमड़ी को देखकर मेरा मोल आँकने वाले इन लोगों को मैं विद्वान कैसे कह सकता हूँ……… ये तो चर्मकार ही हो सकते हैं………….
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क्या अष्टावक्र की माता को उससे प्रेम नहीं रहा होगा………….. क्या उसने अपने पुत्र की कुरूपता के कारण उसको त्याग दिया……… या उसका उफास किया….. नहीं क्योकि ये गुण मूल्यवान है चमड़ी नहीं………. इसलिए प्रेम चमड़ी से करने वाले चमडी के व्यवसायियों के अतिरिक्त कुछ नहीं हैं…..प्यार भगवान की तरह है……. जिसको जानने का दावा सभी करते हैं…. पर इससे साक्षात्कार किसी बिरले को ही होते हैं……… प्यार का दावा करने वाले लोग उसी तरह के हैं जैसे किसी पत्थर की मूर्ति को देख कर ही कोई भगवान के दर्शन करने का दावा कर ले…. वो लोग जो मंदिर मे होकर आए है वो झूठ नहीं कह रहे की उन्होने भगवान देखे…… वो जो मूर्ति है वो भगवान ही हैं……. जिन लोगों के भीतर भाव था उन्होने उस मूर्ति से भी भगवान को पाया है…… उसी तरह आकर्षण भी प्रेम की प्रथम सीढी हो सकता है……… पर शुद्ध प्रेम नहीं …
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प्रेम गुड की तरह है….. जिसे खा कर ही उसका समझा जा सकता है……. यदि कोई शब्दों मे उसके स्वाद का वर्णन करे तो सुनने मे प्रीतिकर लग सकता है पर ज्यों ही गुड मुह मे रखा जाएगा तो उसके स्वाद मे कहे गए सारे ही शब्द झुठे लगने लगते हैं…… क्योकि शब्दों का कितना ही विस्तार कर दिया जाए उसको एहसास मे नहीं बदला जा सकता हैं……. ओर प्रेम एक खूबसूरत एहसास ही तो है……..गुंगे मानव के आस्वाद की तरह प्रेम का स्वरुप अनिर्वचनीय है……
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सच्चे प्रेम के लिए जान दे देना इतना मुश्किल नहीं है जितना मुश्किल है ऐसे सच्चे प्रेम को ढूँढ़ना जिस पर जान दी जा सके……….. क्योकि कई बार प्रेम शब्दों से शुरू होकर शब्दों में ही खत्म हो जाता है……. वो अपनी पूर्ण अवस्था को प्राप्त ही नहीं कर पाता जहां दो लोग अलग अलग न होकर एक से ही हो जाते हैं…….. जहां मतभेद ओर मन भेद जैसे शब्द समाप्त हो जाते है…….. जहां हर तरह का अहं समाप्त हो जाता है…… जहां तेरा-मेरा खत्म हो जाता है ….. कोई शिकवा शिकायत नहीं रहती …… जहां प्रेमी / प्रेमिका कभी एक दूसरे के स्वामी तो कभी दास से नजर आते हैं………..
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जिस तरह किसी बंधन का अपने मूल को छोडना मुश्किल है…….. वृक्ष के लिए उसकी जड़ को छोड़ना ……….. उसी तरह मनुष्य के लिए प्रेम को छोडना बहुत कठिन है……. प्रेम मनुष्य के भीतर ही है……. पर उसकी अवस्था सुसुप्त है……. उसको जगा कर ही प्रेम किया ओर पाया जा सकता है…… एक बार जब आदमी के भीतर प्रेम जागृत हो जाता है तो फिर वो जाति, धर्म, रूप-रंग, मनुष्य पशु सभी के लिए समान रूप से प्रेम वर्षा करता है…. बुद्ध के भीतर प्रेम जागा तो वो प्राणियों से लेकर अंगुलीमाल तक सबको समान रूप से मिला…..
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प्रेम में कुछ पाने का आकर्षण हो तो वह प्रेम नहीं रह जाता है। किसी रूपसी के रूप को पाने का………किसी धनवान का धन को पाने का ….. या किसी प्रभावशाली व्यक्ति के प्रभाव को प्राप्त अक्सर लोग प्रेम का दिखावा करते हैं पर उनके मन में लालच और लोभ भरा रहता है। लोग दूसरे का प्यार पाने के लिये चालाकियां करते हैं जो कि प्यार नहीं छल मात्र है।

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