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चाय के प्याले सी है ज़िंदगी,
शक्कर चम्मच भर डली है,
इसलिए कम मिठास से शुरू हो,
हर घूंट के साथ स्वाद बढ़ता जाता है,
अंतिम घुट जब जुबान पर आता है,
सारा मुंह मिठास से भर सा जाता है,
ये मिठास भी बुरी लगने लगती है,
क्योंकि कई घुंटों से,
लय में आ गया था फीकापन भी,
ठीक लगने लगी थी चाय,
पहले तक जो फीकी ही थी,
अब मिठापन कड़वा लगे,
क्योंकि स्वाद से अधिक जो है,
और शक्कर अब प्याले के तले में,
थोड़ी सी जमी सी दिखती है,
तब ख्याल आता ही की काश,
चम्मच उठाकर जो घोल लिया होता,
पूरी प्याली चाय को स्वाद से पिया होता,
ज़िंदगी भी कुछ यूं ही तो है,
कल के लिए ही तो,
जी रहें हैं यहाँ हम सभी,
हर घूंट फीकापन लिए,
बस यूं ही पी रहे हैं सभी,
एक आस है की,
कल आएगा एक मीठा सा कभी,
पर कल कहीं ये मिठास,
हद से ज्यादा न बढ़ जाए,
फीके कि आदत में कहीं,
मीठा मुंह न कड़वा कर जाए,
कल की फिक्र में कहीं,
ज़िंदगी रोते रोते न कट जाए,
बार बार हर बार बस,
आदत रोने की न पड़ जाए,
मुनासिब है की ले वक्त की चम्मच,
आनंद की शक्कर को,
ज़िंदगी में घोल लिया जाए,
अंतिम पड़ाव में कहीं तले में चिपकी,
खुशी छूटती सी नज़र न आए,
जाते जाते मोह ज़िंदगी का,
और बढ्ने न लग जाए,
वो खुशी जिसके लिए,
अपना आज हम लूटा रहे है,
कल क्या पता मिले न मिले,
क्या पता मिठास तब,
मीठी लगे न लगे,
इसलिए हर पल को अंत के लिए,
बेबस सा क्यों जीना भला,
मिठास है तले में जब,
अब यूं फीका क्यों पीना भला,
पहली घूंट गर मीठी हुई,
तो फीकी अंतिम कैसे भला,
जो आज हंसने की आदत पड़ी,
तो कल कौन सकता है रुला,
ये ज़िंदगी है चित्रों सी,
समय की धूल, घुएँ से
या कभी गंदगी से घिर जाती है,
फिर कभी खुशियों की,
एक हल्की सी बारिश होती है,
और बस उस चित्र की तरह,
सारी ज़िंदगी जैसे फिर से धुल जाती है,
सारी खुशियाँ, सारे रंग,
ज़िंदगी के फिर नज़र आ जाते हैं,
वो रंग जो ज़िंदगी की आपाधापी में,
कल की अपनी तैयारी में,
कहीं धूमिल से होने लगे थे,
कहीं कहीं किसी कोने में,
रंग खोने से लगे थे,
तब समझ आता है,
कि वक्त का एक कपड़ा,
काश इस चित्र पर फेरा होता,
न तो कोई रंग ही खोता,
आज मेरा हुआ कल भी मेरा ही होता।
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~~~~~’किशोर’
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