परिवर्तन की ओर.......
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सुबह-सुबह पुराने से एक सन्दूक को,
साफ करते, झाड़ते-पोंछते,
श्याम-श्वेत एक चित्र मिला,
बालक था एक नन्हा सा उसमें,
उमंग उल्लास से पूर्ण भरा,
उसकी आँखों की चमक के पीछे,
सपने कल के कई तैर रहे थे,
अब ये बच्चा कहीं दिखता नहीं है,
न जाने कहाँ खो गया है,
अब उसका वापस आना भी,
मुझको कुछ मुश्किल ही लगता है॥
उस लड़के को याद करते,
ख्यालों की उधेड्बुन में बैठे,
पीछे से आई एक मीठी सी आवाज़ ने,
आखिर तोड़ दिया मेरे इस क्रम को ,
सामने आकर भतीजा बोला,
चाचा ये तो तुम ही हो ना,
एक लंबी सी सांस लेकर मैं खामोश हो गया,
कुछ भी न बोला,
क्योंकि एक बच्चे से झूठ,
मैं बोल नहीं सकता था,
कि हाँ ये मैं ही हूँ.
और सच शायद वो समझ नहीं पाता,
और सच ये था की,
कोई और था ये,
जो मर चुका है या कहीं खो गया है शायद…..
मैं, मैं अब उस जैसा कहाँ रह गया……
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