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देश में चारों ओर हँगामा मचा हुआ है…… दिल्ली में हुए शर्मनाक घटनाक्रम के अभियुक्तों को मृत्युदंड देने की मांग की जा रही है….
और मीडिया का कहना है की ये मांग सारे देश की जनता की है……
पर क्या ये सच है…….. ??
अगर हाँ तो फिर वो जनता किस देश की है, जिसने ऐसे ही अपराध किए कई लोगों को संसद तक पहुंचाया है……
हम कहते हैं की कानून में कमी है, पर उन का निर्वाचन कानून ने नहीं अपितु जनता के मतों ने ही किया है… जब हम ऐसे लोगों को देश के सर्वोच्च स्थान संसद में भेजने को तैयार रहते है…… तो आज हँगामा क्यों कर रहे है……..
इसलिए हमें ये मानना होगा की कानून बदलने से ही सब कुछ नहीं बदलने वाला है…. अपने को भी बदलना होगा….. सही बात का साथ हर बार हर हाल मे देना ही एक मात्र विकल्प है…… भले ही वो तात्कालिक तौर पर अपने लिए अहितकारी लगे…. क्योंकि सत्य कड़वा होता ही है…
ये भी सत्य है की अब बहुत हो चुका है… कब से कम अब तो हमें गंभीरता से सोचना ही होगा….
हर बार बार सड़कों पर आने के लिए मजबूर क्यों हैं…… आखिर क्या कारण हैं वर्तमान हालत के …
हर बुराई का एक ही कारण है और वो है हमारा नैतिक पतन……
सूर्य पूरब से उदय होकर जगत को प्रकाश से भर देता है…. और पश्चिम में जाकर अस्त हो जाता है, ठीक उसी तरह हमारी पूरब की सभ्यता ने पश्चिम के देशों को भी आकर्षित किया है, तो आखिर किस तरह पश्चिम की नकल कर हम अपनी आज की दशा को प्राचीन की दशाओं से तुलना कर सकते हैं……
एक पुरानी फिल्म चलती है, जिसका नायक अपने आदर्शों और जीवन मूल्यों से नायिका को अपने प्रति सम्मान व प्रेम से भर जाने को विवश कर देता है… बच्चा टीवी पर रामायण जैसे धारावाहिकों से जीवन के लिए कई सार्थक संदेश लेता है…
पर आज का नायक सड़क पर नायिका को रोकता है, उसके लिए गाना गाता है….
क्या ये सब हमारी फिल्मों ने युवाओं के मन में नहीं भरा ………
पिछली सदी का युवा तत्कालीन नायक की भांति आदर्शों की बात कर लोगों को प्रभावित करने का प्रयास करता प्रतीत होता था…….
और अफसोस हमारा वर्तमान युवा वर्ग उस नायक का अनुचर बन रास्ता रोकता है, गाना भी गाता है पर जब लड़की उसको डपट देती है तो उसे आगे की कहानी का कोई अनुभव नहीं तब वो मानसिक तौर पर विकृत व्यक्ति दुर्व्यवहार पर उतर आता है…..
फिल्मों को आँख मूँद कर जीवन में उतरने का उपक्रम करने वाला व्यक्ति निश्चित ही मानसिक तौर पर विकृत कहा जाएगा……
हम भले ही अपनी बुद्धिमत्ता के कितने ही दावे कर लें पर सच्चाई ये ही की हम केवल इस्तेमाल की वस्तु बन गए हैं…. एक विज्ञापन दिन में कई बार आकर ये बताता है की उक्त उत्पाद का जीवन में ये महत्व है और अचानक से वो उत्पाद हमें रोजदिन के लिए आवश्यक लगने लगता है….. कल तक उसका ज्ञान तक नहीं था पर आज वो आवश्यकता है…
हमारी जरूरत हमें विज्ञापन के द्वारा ज्ञात होती हैं…. एक लड़की सूट खरीदने जाती है और दुकानदार उस से कहता है की, अरे कौन आजकल सूट पहनता है, आजकल जींस और मिनी स्कर्ट का जमाना है… और अचानक से लड़की का मन बदलता है और वो सूट भूल जाती है…
क्योंकि हम पुराने नहीं दिखना चाहते…..
लोग कहते हैं की हमें मत सिखाइये की हम कैसे रहे, हम अपना भला बुरा समझ सकते हैं….. और फिर थोड़ी देर में ही वो समझदार मुंह में सिगरेट दबाये घूमते हैं, वो सिगरेट जिसके कवर पर लिखा है की सिगरेट स्वस्थ के लिए हानिकारक है….. ये किस तरह के समझदार हुए हैं हम…. ये भी सोचना चाहिए……
लोगों का मत है की हमारी वर्तमान जीवन शैली का किसी भी तरह की असामाजिक घटनाओं से कोई संबंध नहीं है….
पर क्या ये सच है… लोग कह रहे हैं की वस्त्रों का और महिलाओं से हो रहे दुर्व्यवहार की बढ़ती घटनाओं का कोई संबंध नहीं है…. पर क्या ये सही है…….
यदि ये सही है तो फिर क्यों दिल्ली में एक लड़की के साथ दुर्व्यवहार होता है, और अगले दिन सड़क पर उतरने वाली लड़कियां सरकार से अपनी सुरक्षा, अपराधियों को कठोर दंड जैसे मुद्दों के साथ एक तख्ती लेकर उतरती हैं की ………
“नज़र तेरी बुरी, और पर्दा मैं करूँ… “
इसका स्पष्ट अर्थ है की वो भी जानती हैं की कहीं न कहीं इस घटना के बाद जब इस तरह की घटनाओं के कारणों की बात होगी तो उनके कपड़ों की भी बात होगी…….
“कई लड़कियों का कथन है की इस देश में नारी को देवी का दर्जा है हमें देवी का दर्जा नहीं चाहिए हमें हमारा सम्मान चाहिए…….
पर उन्हें भी ये समझना होगा की देवी का दर्जा इस देश में महिलाओं को खैरात में नहीं दिया गया था……. ये उन्होने अपने आदर्शों, नैतिक मूल्यों और अपार गुणों के बूते अर्जित किया था….
जिसे इस दौर की महिलाएं कम करती जा रही हैं…….
जिन वस्त्रों को तन ढकने के बनाया गया है जब उनका प्रयोग तन की नुमाइश के लिए किया जाने लगे तो उन देवियों की श्रुंखला स्वत: समाप्त होने लगती है……
दोष वस्त्रों में नहीं है पर उन वस्त्रों के साथ पैदा हुई मानसिकता का है………..
वो मानसिकता जो एक लड़की के मुंह से ये सवाल निकलवा रही है की “M I looking HOT” or “M I looking Sexy” क्या दर्शाते हैं…….
लड़का कूल दिखाना चाहता है और लड़की हॉट ……..
ये किस की वकालत हम कर रहे हैं…….
एमटीवी के कार्यक्रम एमटीवी रोडीज़ में आप देखें की आखिर किस तरह की सभ्यता को आगे ले जाने की तैयारी चल रही है… बड़ी बड़ी अभिनेत्रियाँ व कई लड़कियां रेव पार्टीज़ और हुक्का बार से बाहर निकाली जाती है…. 14 फरवरी को दिल्ली के पार्कों की शोभा कई युवा लैला-मजनू बढ़ाते हैं….
फिर कुछ तार्किक लोग एक प्रश्न उठाते हैं की यदि वस्त्र ही कारण है तो फिर क्या कारण है की गाँव की महिलाओं के साथ और छोटी छोटी बच्चियों के साथ भी इस तरह के दुर्व्यवहार की घटना होती है….
तो इसका एक ही उत्तर है मानसिकता…. एक फिल्म निर्माता कहता है की पब्लिक की डिमांड पर एक आइटम नंबर भी फिल्म में शामिल किया गया है…. और पब्लिक फिर केवल उस आइटम नंबर को देखने चली जाती है जो उसकी डिमांड था ही नहीं… और फिल्म हिट हो जाती है… केवल एक झूठ प्रचारित किया जाता है की पब्लिक डिमांड पर….. और पब्लिक बिना ये सोचे की जिसकी डिमांड है वो देखे, वहाँ भीड़ लगा देती है….
कहानी की डिमांड के नाम पर न केवल फिल्म में अपितु आजकल टीवी सीरियलों में तक कई अश्लील दृश्य फिल्माए जाते हैं और यदि गौर किया जाए तो पूरी कहानी का उन दृश्यों से कोई संबंध ही नहीं होता है… फिर भी हम खुश होते हैं…
ये एक प्रयास हो रहा है, विकृत पुरुषों को उकसाने का, उनकी विकृति का व्यावसायिक लाभ उठाने का, और जब इस तरह के विकृत मनुष्य इस तरह की फिल्मों और सीरियलों के संपर्क में आते हैं तो उनकी विकृति चरम पर पहुँच जाती है….. तब वो इस तरह की घटनाओं को अंजाम देते हैं, जिनकी कोई अपेक्षा भी नहीं कर सकता है……
निश्चित ही मेरे इस मानसिकता की बात पर कुछ बुद्धिजीवियों के प्रश्न चिन्ह भी लगेंगे… इस हेतु एक मानसिकता का उदहारण भी है……
एक लादेन अमेरिका पर हमला हर देता है और अमेरिका सारे मुस्लिमों पर संदेह करने लगता है, और तब वहाँ कई मुस्लिम इस लिये भी परेशान किए जाते हैं की वो मुसलमान हैं……. सिक्ख लोगों पर केवल इस वजह से हमले होते हैं की वो लादेन की तरह दाढ़ी और सर पर पगड़ी बांधते हैं…
पर तब हम ये क्यों नहीं कहते की केवल मुस्लिम होने से क्या फर्क पड़ता है….. पहनावा तो सिक्खों का लादेन से मिलता है……
क्योंकि तब हम जानते हैं की अमेरिका अपने प्रति मुस्लिम देशों के विरोध के कारण मुस्लिम समुदाय के प्रति संदेह की दृष्टि रखता है….. जबकि ये हम सब भी जानते हैं की मुस्लिम होने का अर्थ आतंकी होना नहीं होता है…..
जबकि निशाना बनाए जाने वाले मासूम सिक्ख केवल पहनावे में समानता रखते हैं मानसिकता में नहीं…. और उन्हें उस अमेरिका विरोधी मानसिकता से कोई सरोकार नहीं……..
तो आज जरूरत है केवल इस बात की, कि हम अपनी अपनी तथाकथित स्वाभिमान की लड़ाई को ताक पर रख कर, इस विषय का कोई हल निकालें…….
हम एक अच्छे समाज के निर्माण के लिए अश्लील फिल्मों, फ़िल्मकारों, अभिनेता, अभिनेत्रियों का विरोध करें..
अच्छी फिल्मों का बनाना इस लिए बंद नहीं हुआ है की लोग उन्हें देखना नहीं चाहते, बल्कि इस लिए बंद हुआ है की उनके द्वारा परोसी जा रही अश्लीलता को हमने स्वीकार करना शुरू कर दिया है….
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